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कौंसिल में हिन्दी


होता नहीं। ज़रा आप आज़ाद की किताब आबे-हयात तो पढ़िए । कोई २०० वर्ष पूर्व भी मुसलमान-लेखकों तक ने "हिन्दी" का अस्तित्व स्वीकार किया है। जिसे उस समय कुछ लोग “भाषा" कहते थे वही आज कल, विशेषरूप से, हिन्दी कही जाती है। और, इस "भाषा" में अकबर और ख़ानख़ाना तक ने कविता की है । रसखान, क़ादिर और जायसी आदि और भी कितने ही मुसलमान-कवियों ने इसे अपनाया था, इसकी तो गिनती ही नहीं । सजीव भाषा में सदा ही परिवर्तन होता रहता है । सौ वर्ष पूर्व की उर्दू वैसी भाषा न थी जैसी आजकल की है। हिन्दी भी पहले की जैसी नहीं। पहले तो हिन्दी-उर्दू में बहुत ही कम अन्तर था। जब से मुसलमान उर्दू में अरबी-फ़ारसी के शब्दों का मिश्रण बढ़ाने लगे, अतएव जब से वह साधारण हिन्दुओं को समझ में कम आने लगी, तभी से वह हिन्दी से दूर जा पड़ी और तभी से हिन्दी में संस्कृत-शब्दों के मेल की प्रवृत्ति बढ़ी । सच तो यह है कि आपकी उर्दू कोई जुदा भाषा ही नहीं । वह केवल हिन्दी है । हिन्दी-व्याकरण की सहायता के बिना उर्दू का एक भी वाक्य नहीं बोला जा सकता। वर्तमान उर्दू में १५० वर्ष पहले की लिखी हुई एक भी पुस्तक नहीं।

हिन्दी(देवनागरी) लिपि में जो अपने विचार प्रकट करे वह गंवार, नवाब साहब ही ऐसा कह सकते हैं। यदि यही बात है तो बिहार, मध्य-प्रदेश और मध्य भारत में जितने नाज़िर,पेशकार, महाफ़िज दफ्तर, वकील, मुख़्तार, मास्टर और इन्स्पे