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देवनागरी-लिपि का उत्पत्ति-काल


ज़िक्र है । ये बाते तभी सम्भव होती हैं जब भाषा लिखित रूप में प्रचलित हो । पाणिनि ने 'ग्रन्थ' शब्द का भी कई बार उपयोग किया है ; इससे भी उनके समय में लिपि का होना सिद्ध है, क्योंकि ग्रथन करना अर्थात् गृथना वर्णों के बिना सम्भव नहीं । और ग्रन्थ का अर्थ वाक्यों या शब्दों का गूथना ही है।

ललित-विस्तर एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है । वह एक बौद्ध पण्डित का बनाया हुआ है ! परलोक-वासी डाक्टर राजेन्द्रलाल मित्र ने उसका सम्पादन करके उसे छपाया है । डाक्टर साहब ने उसकी जो भूमिका लिखी है वह बड़ी ही विद्वत्तापूर्ण है । ७६ ईसवी में इस पुस्तक का अनुवाद चीनी भाषा में हुआ था। बाबू चारुचन्द्र बन्द्योपाध्याय अपने एक लेख में इस पुस्तक का हवाला देकर लिखते हैं कि शाक्यसिंह ने विश्वामित्र नामक एक अध्यापक से लिखना सीखा था और अङ्ग, वङ्ग, मगध, द्रविड़ आदि देशों में प्रचलित कई प्रकार की लिपियां वे लिखते थे। इससे स्पष्ट है कि ईसा के कई सौ वर्ष पहले लिखने की कला का प्रचार इस देश में हो गया था, और एक ही नहीं, किन्तु कई प्रकार की लिपियां प्रचलित हो गई थीं। हम यह लेख एक ऐसी जगह लिख रहे हैं जहां ललितविस्तर अप्राप्य है। इससे हम बाबू चारुचन्द्र बन्धोपाध्याय के दिये गये प्रमाण खुद नहीं देख सके । परन्तु हमको बाबू साहब के कथन पर विश्वास है । हम उनके दिये हुए प्रमाण को अमूलक नहीं समझते।