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कौंसिल में हिन्दी


सीखेंगे; पर हिन्दी न सीखेंगे और किसीको सीखने भी न देंगे। आपकी इस अनुदारता पर आपके सभी समझदार सजातियों को दुःख हुए बिना न रहेगा, क्योंकि---

चुंँ अज़ क़ौमे यके बेदानिशी कर्द।

न केहरा मंज़िलत मानद न मेहरा॥

आपके इस उप-प्रस्ताव से दो बातें प्रकट होती हैं। एक तो हिन्दी से आपकी उत्कट घृणा, दूसरी अपनी भाषा उर्दू पर उत्कट प्रीति । हिन्दी से घृणा का कारण शायद यह होगा कि आप हिन्दी को उर्दू की विरोधिनी और उर्दू को अपदस्थ करने की चेष्टा करनेवाली समझते हैं । पर यह आपका भ्रम है। हम आपकी इस घृणा व्यञजक प्रवृत्ति की नकल नहीं करना चाहते । हम ज्ञान-प्राप्ति के लिए, व्यवहार-निर्वाह के लिए, मनोरजन के लिए और आपकी धार्मिक पुस्तकों के परिशीलन से लाभ उठाने के लिए उर्दू ही नहीं, अरबी और फारसी तक, समय, सदिच्छा और सुभीता होने पर, अवश्य पढ़ेंगे । जिन मुसलमान भाइयों के साथ हम आज कोई ८०० वर्षों से रहते हैं और जिनका और हमारा चोलीदामन का साथ है उनकी भाषा से घृणा करना मनुष्यत्व-सूचक नहीं । आप लोग हिन्दी न पढ़ें, हम आपकी भाषा और आपकी लिपि का ज्ञान प्राप्त करने में ज़रा भी अनुदारता से काम न लेंगे। परन्तु हम एक बात अवश्य करेंगे। अपनी भाषापर आपकी जो उत्कट भक्ति है उससे हम सबक़ अवश्य सीखेंगे । हम आज से हिन्दी पर उसी तरह भक्ति करेंगे जिस तरह आप उर्दू पर