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साहित्यालाप


है, दूसरा पक्ष दूसरी तरह । ऐसी दशा में यदि मुन्सिफ़ वह लिपि जानता होगा तो उस मुक़द्दमे का फैसिला करने में उसे विशेष सुभीता होगा या नहीं।

हाईकोर्ट के किसी जज और किसी बारिस्टर की बात पर विचार करने के पहले यह जानना होगा कि वह हिन्दी जानता भी है या नहीं ; यदि वह स्वयं ही उससे अपरिचित है तो उसकी राय की कीमत ही कितनी ! जिस इलाहाबाद से हिन्दी के एक नहीं कई पत्र और पत्रिकायें निकलती हैं और जहां स्त्रियां तक उनका सम्पादन करती हैं वहीं हिन्दी के दस्तावेज़ पढ़नेवाला एक भी आदमी न मिला ! किमाश्चर्य्यमतः परम् ! उन दस्तावेजों की लिपि मुँड़िया या विकृत कैथी रही होगी,देवनागरी नहीं । मुंड़िया, कैथी या विकृत हिन्दी से तो इस प्रस्ताव का कुछ सम्बन्ध ही नहीं।

बहुत ही कम अर्कोनवीस, वकील और मुखतार देवनागरी लिख सकते हैं। यह आपने बहुत ठीक कहा । पर इससे प्रस्ताव की आवश्यकता पूर्ववत् ही बनी रही। अच्छा, जा देवनागरी लिख सकते हैं उन्होंने यदि महीने में दो एक अर्जियां उस लिपि में लिख डाली और पेशकार तथा जज दोनों उस लिपि से अनभिज्ञ हुए तो ? तो फिर यही होगा न - "जाव, उर्दू में लिखा लावो" । परन्तु यह प्रजा के सुभीते की बात न होगी। माननीय मिस्टर रज़ाअली ने तो अपने साथी अन्य विरोधियों को भी मात कर दिया---

(झ) आप फ्रेञ्च सीखेंगे, रशियन सीखेंगे, इटालियन