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मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट में हिन्दी उर्दू

वह ४३५ ही रह गई। परन्तु हिन्दी की पुस्तकों की संख्या ४२६ से ८०७-अर्थात् दूनी हो गई। बताइए, क्या इससे यह नहीं सूचित होता कि क्लिष्ट होने पर भी हिन्दी की पुस्तकों की चाह उर्दू की पुस्तकों की अपेक्षा अधिक है? गत ३० वर्षों का समय लेखा देखने से तो उर्दू की पुस्तकों के प्रचार की दुर्दशा और हिन्दी की पुस्तकों के प्रचार की उन्नति का चित्रसा सामने दिखाई देने लगता है। उसे भो देख लीजिए:—

१८८१ से १८९०
तक
१८९१ से १९००
तक
१९०१ से १९१०
तक
उर्दू ४३८० ४२१८ ३५४७
हिन्दी २७६३ ३१८६ ५०६३

उर्दू की पुस्तकों की संख्या बराबर घटतीही चली आती है और हिन्दी की पुस्तकों की संख्या बढ़ती ही जाती है। बात यह है कि इन प्रान्तों की प्रधान भाषा हिन्दी ही है, उर्दू नहीं। हिन्दी क्लिष्ट ही सही, फारसी और अरबी के शब्दों से लदी हुई उर्दू की अपेक्षा वह अधिक क्लिष्ट नहीं। 'हिन्दी-भाषा और देवनागरी-लिपि के गुण अबधीरे धीरे लोगों की समझ में आ रहे हैं। इसीसे उनकी वृद्धि हो रही है। ऊपर दी गई तालिकाओं से यह भी सिद्ध है कि कचहरा के कर्मचारी और आजन्म उर्दू के प्रमी यदि देवनागरी लिपि की अपेक्षा फ़ारसी लिपि को अधिक अच्छी तरह लिख सके