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साहित्यालाप


तो २ से फ़ारसी-लिपि की उत्कृष्टता कदापि नहीं साबित हो सकती। उत्कृष्ट वस्तु को सभी पसन्द करते हैं। यदि फारसी की लिपि उत्कृष्ट होती तो उस लिपि में छपी हुई उर्द्रू की पुस्तकों का प्रचार अवश्य ही बढ़ता। पर नहीं बढ़ा। अतएव वह उत्कृष्ट नहीं । मुट्ठी भर मुसलमानों और कुछ कायस्थों और काश्मीरियों को छोड़ कर उसका कोई पुरसाँ नहीं।

मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट के लेखक हाशय की एक और शिकायत है। वे कह हैं कि मदमशुमारी के पहले,१९०२ ईस्वी की तरह, इस दफे भी हिन्दी-उदू का झगड़ा खड़ा हो गया था। इस झगड़े का यह नतीजा हुआ कि हिन्दी और उर्दू बोलनेवालों की ठीक ठीक संख्या न मालूम हो सकी। मुसलमान कर्मचारियों ने हिन्दी बोलनेवालों को भी उर्दू बोलनेवाला लिख दिया; हिन्दू कर्मचारियों ने ठीक इसका उलटा किया। फल यह हुआ कि दोनों भाषायें या बोलियां बोलनेवालों की संख्या में कमी-बेशी हो गई। यह सब लिख कर आपने राय दी है कि उर्दू बोलनेवालों की संख्या जो इकतालीस लाख दी गई है वह बहुत कम है। उसमें कम से कम एक पञ्चमांश और बढ़ाना चाहिए। अर्थात् आपने यह सूचित किया है कि हिन्दू कर्मचारियों ने उर्दू के साथ कुछ अधिक अन्याय किया। ऐसा कहने का प्रमाण आपके पास अवश्य ही होगा। पर आपने दिया नहीं। अलीगढ़ के उर्दू-प्रोमियों के पक्षपात का उदाहरण आपने अवश्य दिया है और लिखा है कि वहाँवालों ने उर्दू बोलनेवालों की संख्या उस