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उर्दू और आज़ाद

मोलवी साहब ने अपनी किताब में, प्रस्तुत विषय में, जो कुछ लिखा है उसका कुछ कुछ अंश हम उन्हीं के शब्दों में देते हैं । उचित तो था कि सिर्फ़ हिन्दी जाननेवालों के सुभीते के लिए हम उनकी इबारत को हिन्दी का रूप दे देते । पर ऐसा करना हमने ज़रूरी नहीं समझा ! कारण यह है कि उर्दू की इबारत का कुछ अंश वाचकों को यदि न भी समझ पड़े तो विशेष हानि नहीं, पर हिन्दी का रूप देने पर, कहीं कोई यह न समझ बैठे कि हमने मौलवी साहब की राय ठोक तौर पर नहीं प्रकट की, उसमें कुछ भूल हो गई । अभाग्यवश देहली या लखनऊ के महिमामय मौलवी महाशयों की सङ्गति करने का हमें कभी सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ। इससे, सम्भव है, हम नीचे के अवतरणों में अरबी, फारसी और, तुर्की शब्दों का उच्चारण ठीक ठीक न कर सकें । पर हमें आशा है, हमारे पाठक "हंसो यथा क्षीरमिवाम्बुमध्यात् ” नीति का अनुकरण करते हुए मतलब की बातों को समझ कर हमारे इस दोष को क्षमा करेंगे ।

हजरत "आज़द" ने मौके मौके पर उर्दू की तारीफ़ भी की है और जो दोष उसमें हैं उन्हें दिखलाने में उन्होंने कसर भी नहीं की। उनके दिखलाये हुए सिर्फ दोषों ही का उल्लेख हम यहां पर इसलिए करते हैं जिसमें हिन्दीवाले उर्दू को। अपना आदर्श न समझे और उसके दोषों को नकल करने की कोशिश न करें।