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उर्दू और आज़ाद

"अगरचे यह बात बग़ैर तमसील देखने के भी हर शख्स के ख़याल में नकश है कि संस्कृत और ब्रजभाषा को मिट्टी से उर्दू का पुतला बना है । बाकी और ज़ुबानों के अलफ़ाज़ ने ख़त व ख़ाल का काम किया है । मगर मैं चन्द लफूज़ मिसालन लिखता हूं। देखो, संस्कृत अलफाज़ जब उर्दू में आये तो उनकी असलियत ने इनक़िलाब ज़माना के साथ क्योंकर सूरत बदली है।"

इस के आगे संस्कृत शब्दों की एक तालिका है । “उर्दू-बेगम" के लेखक महाशय ने भी खूब समझाया है कि उर्दू प्राकृत ही की बेटी है। अब हमारी प्राकृत-प्रसूत हिन्दी यदि उर्दू-व्याकरण की नक़ल करने चले तो बड़े अफ़सोस की बात है। बड़ी लज्जा की बात है। उर्दू की बदौलत फारसी, अरबी के जो शब्द बोलचाल में आगये हैं उन का प्रयोग हिन्दी में अनुचित नहीं कहा जा सकता । पर हिन्दी में अरबी, फारसी के क्लिष्ट शब्द लिखना और उर्दू के व्याकरण की नक़ल करना हिन्दी को असलियत का सर्वनाश करना है। उर्दू का व्याकरण भी कोई व्याकरण है ?

फारसी, अरबी और तुर्की के उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक,अतिशयोक्ति आदि अलङ्कारों को उर्दू में लाने और इबारत को रंगीन बनाने की कोशिश में उर्दू-वालों ने अपनी भाषा की जो दुर्गति की है उसपर अध्यापक "आज़ाद" क्या कहते हैं,सो सुनिए । उनके "अमृत" (आवे-हयात) के पृष्ठ ४७,४८,५२ और ५३ देखिये-