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साहित्यालाप

"बयान मज़कूर" बाला से तुम्हें एजमालन् मालूम हो गया कि उर्दू का दरख़्त अगरचे संस्कृत और भाषा की ज़मीन में उगा मगर फ़ारसी की हवा में सरसब्ज़ हुआ है । अलबत्ता मुश्किल यह हुई कि "बेदिल" और "नासिर अली" का ज़माना क़रीब गुजर चुका था और इनके मोतक़िद बाक़ी थे। वह इस्तेआरा और तशबीह के लुत्फ से मस्त थे। इस वास्ते गोया उर्दू भाषा में इस्तेआरा व तशबीह का रङ्ग भी आया और बहुत तेज़ी से आया। यह रङ्ग अगर इसी कदर आता जितना चेहरे पर उबटने का रङ्ग या आँखों में सुर्मा तो खुश्नुमाई और बीनाई दोनों को मुफीद था । मगर अफसोस कि उसकी शिद्दत ने हमारे क़बूत बयान की आँखों को सख़्त नुक़ासान पहुँचाया और जुबान की ख़याली बातों से फकत तौहमात का स्वाँग बना दिया। नतीजा यह हुआ कि भाषा और उर्दू में जामीन आसमान का फर्का हो गया।

"तअज्जुब यह है कि इन ख़यालों ने और वहां की तशबीहों ने इस क़दर जोर पकड़ा कि इन के मुशावेह जो यहां की बातें थीं उन्हें बिल्कुल मिटा दिया। अलबत्ता सौदा, सय्यद इन्शा के कलाम में कहीं कहीं हैं और वह अपने मौक पर निहायत लुत्फ देती हैं।

"गरम कि अब हमारी इनशा-परदाजी एक पुरानी याददाश्त उन तशबीहों और इस्तेआरों की है कि सदहा साल से हमारे बुजुर्गों की दस्तमाल हो कर हम तक मीरास पहुँची हैं। हमारे मुताख़रीन को नई आफरीं लेने की आर्ज़ू हुई त