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साहित्यालाप


इस का यह हुआ कि ज़बान का ढंग बदल गया और नौबत यह हुई कि अगर कोशिश करें तो फ़ारसी की तरह पंजरुक़्का और मीना-बाजार या फ़िसानै-अजायब लिख सकते हैं। लेकिन एक मुल्की मुआमिला या तारीख़ें इन क़िलाब इस तरह नहीं बयान कर सकते जिस से मालूम होता जाय कि वाक़या मज़कूर क्योंकर हुआ और क्योंकर इख़तिताम को पहुँचा !

"यह क़बाहत फ़ाक़ात नाज़ क-ख़ायाली ने पैदा की कि इस्तेआरा व तशबीह के अन्दाज़ और मुतरादिफ फिक़रे तकिया कलाम को तरह हमारी ज़बान-क़लम पर चढ़ गये। बेशक हमारे मुतक़द्दमीन उस की रंगीनी और नज़ाकत देख कर भूले मगर न समझे कि यह ख़याली रङ्ग हमारे असली ज़ौहर को खाक में मिलाने वाला है। यही सबब है कि आज अंँगरेज़ी ढंग पर लिखने में या उनके मज़ामीन के पूरा पूरा तरजमा करने में हम बहुत क़ासिर हैं। नहीं ! हमारी असली इनशा-परदाज़ी इस रिश्ते में क़ासिर है।

"बेशक हमारी तर्ज़ बयान अपनी चुस्त बन्दिश और काफ़ियों के मुसलसल खटकों से कानों को अच्छी तरह ख़बर करती है। अपने रंगीन अलफ़ाज़ और नाज क मज़मून से खयाल में शोखी का लुत्फ पैदा करती है। साथ इस के मुबालिगी कलाम और इबारत की धूमधाम से ज़मीन व आसमान को तह व बाला कर देती है। मगर असल मकसूद यानी दिली असर या इज़हार वाकफियत ढूंदो तो जरा नहीं।"