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उर्दू और आज़ाद

शिव! शिव! यद्यपि "आज़ाद" ने आवे-हयात में खुद भी रंगोन इबारत लिखी है तथापि ऐसी इबारत को बुरा बतलाने में उन्होंने ज़रा भी आगा पीछा नहीं किया। हम उन की न्यायपरायणता, सुरुचि और बहुदर्शिता की प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकते। जो अवतरण हम ने ऊपर दिये हैं उन के आगे भी उन्होंने उर्दू वालों की अस्वाभाविक रचना पर अफसोस ज़ाहिर किया है और उन की लानत मलामत की है।

शुरू शुरू में उर्दू-भाषा की टकसाल देहली और लखनऊ थी। इसका कारण "आज़ाद" यह बतलाते हैं कि इन दोनों शहरों में प्रत्येक शहर उस समय राजधानी था। “दरबार ही में ख़ानदानी उमरा और अमीर-ज़ादे खुद साहब इल्म होते थे। उन की मजलिसेंं अहले इल्म और अहले कमाल का मजमा होती थीं। ...........इसी वास्ते गुफ्तगू, लिबास, अदब-आदाब, नशिस्त-बरखा़स्त, बल्कि बात बात ऐसी संजीदा और पसंदीदा होती थी कि स्वाह मख़्वाह सब के दिल कबूल करते थे।

पर अब वह समय नहीं। आज कल की दशा का वर्णन प्रोफो़सर साहब अपनी किताब के पृष्ठ ६१ और ६२ में इस तरह करते हैं—

"दिल्ली बरबाद, लखनऊ वीरान। दोनोंके सनदी अशखास कुछ पैवन्दज़मीन हो गये। कुछ दर बदर खा़क बसर। अब जैसे और शहर वैसे ही लखनऊ। जैसे छावनियों के बाज़ार वैसे ही दिल्ली। बल्कि उससे भी बदतर। कोई शहर ऐसा नहीं रहा