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मर्दुमशुमारी की हिंदुस्तानी भाषा


पर विचार कीजिए । आठ नौ सौ वर्ष हुए जब पहले पहल मुसलमानों ने इस देश में क़दम रक्खा था। धीरे धीरे वे इस देश के अधीश्वर हो गये। उस समय इस देश के निवासी न गूंगे थे और न बिना भाषा ही के थे। उनकी भी अपनी निज की भाषा थी। अथवा यों कहना चाहिए कि प्रत्येक प्रान्त में एक एक प्रधान भाषा बोली जाती थी और इन भाषाओं के बोलनेवालों की संख्या भी करोड़ों थीं । उधर मुसलमान उनके मुक़ाबले में बहुत ही थोड़े थे। फ़ी एक लाख भारतवासियों के पीछे मुसलमान शायद एक सौ से भी कम ही रहे होंगे। अतएव एक लाख के सुभीते के लिए एक सौ को चाहिए था कि वे उन एक लाख मनुष्यों की भाषा और लिपि सीखते और उन्हीं का प्रचार करते । परन्तु उन्हें अपनी भाषा इतनी प्यारी थी कि उन्होंने उसे न छोड़ा। उलटा यहां के लाखों आदमियों को अपनी भाषा और अपनी लिपि सीखने के लिए मजबूर किया ।

यही हाल अँगरेज़ों का भी है। उनकी संख्या तो मुसल्मानों से भी कम है---वे तो केवल मुट्ठी भर हैं। पर उन्होंने भी यहां की भाषाओं को प्रधानता न दी। जहाँ तक उनसे हो सका उन्होंने उलटा यहाँवालों ही को अपनी भाषा सिखाई । यहाँ-वालों की भाषा या बोली उन्होंने मजबूरन सीखी भी तो बस काम चलाने भर को, अधिक नहीं। कचहरियों और दफ्तरों में, यहाँ प्रान्तिक भाषाओं में काम होता है वहाँ भी, वे, यदि उनका बस चलता तो, अपनी ही भाषा प्रचलित कर देते, पर