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साहित्यालाप


उतने अँगरेज़ीदाँ पाते कहाँ से । इसी से विवश होकर उन्हें यहाँ को भाषा से ही काम लेना पड़ा ।

जातीयता, एकता, सहानुभूति और पारस्परिक भ्रातृभावना की उत्पत्ति, रक्षा और वृद्धि के लिए जिस भाषा की इतनी आवश्यकता है उसके विषय में अवहेलना या भेदनीति से काम लिया जाता देख किस विवेकशील सजन को सन्ताप न होगा?

और और प्रान्तों में प्राय: एक ही एक देशी भाषा का प्राधान्य है । मद्रास में अलबते कई देशी भाषायें प्रचलित हैं। पर उन सबके क्षेत्र जुदा जुदा हैं--तामील, तेलगू, मलयालम अपने ही अपने जिलों में बोली जाती हैं । उनकी खिचड़ी नहीं पकती। जहां कनारी है वहां उसी की मुख्यता है: जहां तामील है वहां उसी की। यही हाल कुछ अन्य भाषाओं का भी है। गुजरात में गुजराती, महाराष्ट्र में मराठी और बङ्गाल में बंँगला भाषा बोली जाती है। लिखने और बोलने की भाषायें वहां वही हैं। इसी तरह मध्यप्रदेश और बिहार में हिन्दी का प्रचार है। इन दोनों प्रान्तों की शासन-रिपोर्टों और मर्दुमशुमारी की भी रिपोर्ट्स में वहां की भाषा बोलने वाले हिन्दी-भाषा-भाषी ही माने गये हैं और अब भी माने जाते हैं। परन्तु आपको सुनकर आश्चर्य होगा कि यदि बिहार और मध्यप्रान्त के दो चार हजार---इतने ही क्यों, लाख दो लाख भी---आदमी संयुक्त-प्रान्त में मर्दुमशुमारी के दिन, काशी, प्रयाग, हरद्वार या और कहीं ठहरे मिले तो उनकी बोली हिन्दी के बदले “हिन्दुस्तानी" हो जाय। इस अघटनशील घटना का गुरुत्व या महत्त्व थोड़ा