सुन लिया आपने। खैर, देवनागरी लिपि के पक्षपातियों
की मूर्खता का कारण तो उनकी असम्पूर्ण और क्लिष्ट वर्णमाला है, मुसल्मानों में शिक्षा का जो कई गुना अधिक अभाव देखा जाता है उसका क्या कारण है ? फ़ारसी की वर्णमाला तो होगी ही नहीं, क्योंकि यदि यह बात होती तो एडिटर साहब ज़रूर ही वैसा लिख देते। मालूम नहीं, आप इस देश की वर्णमालाओं का कहाँ तक ज्ञान रखते हैं। हमें तो जान पड़ता है कि आप प्रायः कुछ भी उनके विषय में नहीं जानते। जो जानते तो यह कभी न कहते कि हमारी वर्णमाला किती विदेशी वर्णमाला के आधार पर बनी है। इस विदेशी-आधार-विषयक कल्पना का कई दफ़ खण्डन हो चुका है। लासन,टामस, डासन, कनिंहम आदि ने इस कल्पना को बिलकुल हो निर्मूल बतलाया है । श्याम शास्त्री ने तो इसकी जड़ को बिल-कुल ही उखाड़ फेका है । परन्तु टेलीग्राफ़ के सम्पादक साहब क्यों इनकी सुनेंगे। वे अपनी मनमानी हाँकने से चूकनेवाले नहीं। इसीसे आप अरबी-फ़ारसी और नागरी लिपि का संहार करा कर रोमन जारी किया चाहते हैं। आपने सोचा होगा कि फ़ारसी लिपि तो सार्वदेशिक होही नहीं सकती, नागरी भी न
हो तो अच्छा । हो रोमन, जिसका सार्वदेशिक प्रचार होना शायद गवर्नमेंट सी असम्भव समझती होगी। खैर, जी में आवे सो कहिए:-
"मुखमस्तीति वक्तव्यं शतहस्ता हरीतकी ।"
[फरवरी १६११]