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साहित्यालाप


करता है, ईर्ष्याद्धष का बीज बोता है, दलबन्दी का अस्तित्व में लाता है और विकराल कलह की उत्पत्ति का कारण होता है। यह सब होता है सही, पर कविता बेचारी उसके असर से साफ़ बच जाती है। उसकी कुछ भी हानि नहीं होती। कविता को न सही, पद्य-रचना को तो इससे स्फूर्ति ही मिलती है ! कवि, सुकवि और कुकवि सभी लोग और भी अधिक उत्साह और श्रमपूर्वक अपनी अपनी रचना में लग जाते हैं । इस दफ़े न सही, अगली दफ़े पुरस्कार ज़रूर मिलेगा, यह आशा उन्हें अपने काम में पहले की भी अपेक्षा अधिक दृढ़ता और मनोयोग से नियुक्त करती है । उपहार न सही, अच्छी रचना होने से शाबाशी मिलने से भी तो कवियों का उपकार ही होता है । यदि यह भी न हो तो भी रचना का अभ्यास करते रहने से छन्दःशास्त्र में अधिकाधिक प्रवेश होता जाता है, ढूंढते रहने से नये नये शब्द अवगत होते जाते हैं, मनोभावों को चुस्त-दुरुस्त भाषा में व्यक्त करने की शक्ति बढ़ती रहती है और मन की बात को थोड़े में कहने की आदत पड़ जाती है । इस दशा में कवियों की संख्या बढ़ने से कविता में कुछ विशेष उन्नति यदि न भी हो तो भी साहित्य को थोड़ा-बहुत लाभ पहुँचने की अवश्य ही सम्भावना रहती है। अतएव कवि-सम्मेलनों और समस्यापूर्तियों की वृद्धि व्यर्थ अथवा साहित्य को हानि पहुँचानेवाली नहीं कही जा सकती।

पिछले नवम्बर में एक कवि-सम्मेलन, साहित्य-सम्मेलन के साथ, वृन्दावन में हुआ । सुनते हैं, उसमें कवियों का अच्छा