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साहित्यालाप


हो । अश्लीलता के समाचार तो लोगों ने उड़ा दिये, पर किसी ने उस अश्लील कविता या उसके भावों का प्रकाशन इशारे से भी नहीं किया। उसका विषय क्या था और वह रचना किसकी थी, तथा अधिकांश श्रोताओं ने उसे कैसा समझा, यह भी तो बताने की किसी ने कृपा नहीं की।

अश्लीलता उसे कहते हैं जिसे सुनकर श्रोता के हृदय में जुगुप्सा, घृणा और विशेष सङ्गोच के भावों का उदय हो । सभ्य समाज में जिस तरह की बातें करना मना है वैसी ही बातों से जुगुप्सा की उत्पत्ति होती है-जैसे लखनऊ के "चिरकीन" नामक शायर की उक्तियों से। पर क्या हिन्दी के कवियों में कोई इतने भी जघन्य कवि हैं जो घृणित बातों का उल्लेख अपनी कविता में--सो भी हज़ारों आदमियों के सामने-करें? विश्वास तो नहीं होता। अतएव अश्लीता-विषयक आरोप में और कुछ नहीं तो अतिरजना ज़रूर ही मालूम होती है।

अनुमान यही कहता है कि जिस कविता या रचना पर आक्षप किया गया है वह कुछ अधिक शृङ्गारिक रही होगी। सम्भव है, वह कुरुचि की सीमा तक पहुंँच गई हो । यदि वह ऐसी ही रही हो तो परिमार्जित रुचि रखनेवाले समाज में वह न पढ़ी जाती तो अच्छा ही था। तथापि यदि वह पढ़ी ही गई थी तो वैसी अन्य कविताओं का पढ़ा जाना रोक दिया जा सकता था । इतना हो-हल्ला मचाने की क्या ज़रूरत थी ? कवियों को कुछ नोटिस तो पहले से दे ही न दी गई थी कि