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साहित्यालाप

निम्ब, चैतन्य और बल्लभ आदि सभी सम्प्रदायों के वैष्णवों की सजीवन-मूरि है। आशा नहीं, विश्वास है, मथुरा और वृन्दावन के गोस्वामिवर्य्य भी उसे बड़े ही आदर की वस्तु समझते होंगे। इसी श्रीमद्भागवत में व्यासजी ने वृन्दावनवासिनी न सही, व्रजवासिनी महिलाओं के मुख से, श्रीकृष्ण को सम्बोधन करके कहलाया है—

यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेषु
भीताः शनै: प्रिय दधीमहि कर्कशेषु।
तेनाटवीमटसि तद् व्यथते न किंस्वित्
कूर्पादिभिभ्रमति धीर्भवदायुषां नः॥

श्रीमदभागवत में तो व्यासजी ने यहां तक कहने की कृपा की है—

कृष्णं निरीत्य वनितोत्सवरूपवेशं
श्रुत्वा च तत्क्वणितवेणुविचित्रगीतम्।
देव्यो विमानगतय: स्मरनुन्नसारा
भ्रश्यत्प्रसूनकबरा मुमुहुर्विनीव्यः॥

साहित्य सम्मेलन के कार्यकर्त्ता गोस्वामी महोदय यदि इन उक्तियों को अश्लील न समझें, और यदि कवि-सम्मेलन में पढ़ी गई कोई शृङ्गार-रस-परिप्लुत उक्ति सुनकर ही कुछ उदाराशय सज्जनों ने उसपर अश्लीलता का दोष आरोपित कर दिया हो, तो उनकी काव्यमर्मज्ञता की बलिहारी!

कांग्रेस के सप्ताह में कानपुर में दो कवि-सम्मेलन होनेवाले हैं। "होनेवाले", इसलिए कि यह नोट दिसम्बर के पहले ही