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कवि सम्मेलन

सप्ताह में लिखा जा रहा है। इसके प्रकाशन के पहले ही वे सम्मेलन हो चुकेंगे। एक ही सप्ताह या एक ही समय में दो सम्मेलन होने का कारण यह है कि कानपुर में कवियों के दो दल या दो टाट होगये हैं। वे एक दूसरे से मिलना नहीं चाहते; वे परस्पर एक दूसरे को अछूत सा समझ रहे हैं। जान पड़ता है किसीने अपने किसी प्रतिस्पर्धी कवि की शान का बाल बांका कर दिया है। भला कहीं कवि भी ऐसे अपमान को सकता है? और फिर कानपुर का कवि! व्यास और वाल्मीकि, कालिदास और भवभूति, भास और गुणाढ्य आदि कवियों की कृतियों की आलोचना हो सकती है, उनके दोष दिखाये जा सकते हैं, उनमें से कौन बड़ा और कौन छोटा है, इसका भी विवेचन हो सकता है। पर कानपुर के लोकातिशयी कवियों के विषय में किसीको कुछ कहने का अधिकार नहीं; उनकी कविताओं में से किसीको उत्तम, किसीको मध्यम, किसी को अधम बताने की भी आज्ञा किसीको नहीं। किसीको पुरस्कार देने और किसीको न देने का कानून भी वहां के कवियों के पिनल कोड या सिविल प्रोसिडियोर कोड में नहीं। दुनिया हँसे, हँसा करे। कवियों को दलबन्दी को विवेकशील जन निन्द्य समझें, समझा करें। कुछ भी क्यों न हो जाय; पर कवियों की शान में फरक़ न पड़े। दलबन्दी भारत के भाग्य ही में लिख सी गई है। देखिए न लिबरल, इंडिपेंडेंट, स्वराजिस्ट सभी आपस में दलबन्दी कर रहे हैं। दल के भीतर दल पैदा हो रहे हैं। फिर कवि यदि अपने फिरके अलग अलग बनावें तो क्या आश्चर्य्य?