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नई रोमन-लिपि के प्रचार का प्रयत्न

पादरी जे नोल्स रोमन-लिपि के प्रचार के बड़े पक्षपाती हैं। उन्होंने अपने उद्देश की सिद्धि के लिए लन्दन के " राजपूत हेरल्ड" की शरण ली है * । उसके जून १९१३ के अङ्क में आपका एक लेख निकला है । लेख का नाम है-Reading and Writing in India -अर्थात् भारत में लिखना पढ़ना। यह वही राजपूत-हेरल्ड है, जिसके सम्पादक श्रीमान् ठाकुर श्रीज्यस्सराज सिंह जी सीलोदिया है। सीसोदिया जी विलायतवासी हिन्दुस्तानी हैं और हिन्दुस्तान में “सिविल-सरविस परीक्षा" ली जाने के विरोधी हैं । हिन्दुस्तान के न्याय और शासन-विभागों में बड़े बड़े ओहदे पाने के उम्मेदवारों को विलायत जा कर परीक्षा देनी पड़ती है। भारत के हितचिन्तक चाहते‌ हैं कि यह परीक्षा अपने ही देश में हुआ करे, जिससे अधिक हिन्दुस्तानी बड़े बड़े ओहदों पर नियत हो सके। पर सीसोदियाजी, कुछ अन्य भारतवासियों की तरह, इसके खिलाफ हैं । अस्तु ।

पादरी साहब को इस बात का बड़ा अफसोस है कि


  • वलकत्ते के पाक्षिक पत्र कालेजियन ( Collegian ) में भी पादरी साहब ने अपने वक्तव्य का सारांश प्रकाशित किया है। उसमें आपने यह भी लिखा है कि हमारी वर्तमान लिपियां अशोक या ब्राह्मी लिपि से निकली हैं । पर अशोव-लिपि भारतवर्षीय लिपि नहीं । वह बहुत कर के किसी विदेशी लिपि से उत्पन्न हुई है । अतएव भारतवासियों केा नई विदेशी लिपि, रोमन, स्वीकार कर लेने में कोई आपत्ति न होनी चाहिए !!!