नाशोन्मुख होने लगेगा । इसी तरह आप साहित्य के रसास्वादन से अपने मस्तिष्क को वञ्चित कर दीजिए, वह निष्कय
होकर धीरे धीरे किसी काम का न रह जायगा । बात यह है कि
शरीर के जिस अङ्ग का जो काम है वह उससे यदि न लिया
जाय तो उसकी वह काम करने की शक्ति नष्ट हुए बिना नहीं
रहती। शरीर का खाद्य भोजनीय पदार्थ है और मस्तिष्क का
खाद्य साहित्य । अतएव यदि हम अपने मस्तिष्क को निष्क्रिय
और कालान्तर में निर्जीव सा नहीं कर डालना चाहते तो हमें साहित्य का सतत सेवन करना चाहिए और उसमें नवीनता तथा पौष्टिकता लाने के लिए उसका उत्पादन भी करते जाना चाहिए । पर, याद रखिए, विकृत भोजन से जैसे शरीर रुग्ण होकर बिगड़ जाता है उसी तरह विकृत साहित्य से मस्तिष्क भी विकारग्रस्त होकर रोगी हो जाता है । मस्तिष्क का बलवान् और शक्तिसम्पन्न होना अच्छे ही साहित्य पर अवलम्बित है । अतएव यह बात निम्रान्त है कि मस्तिष्क के यथेष्ट विकास का एकमात्र साधन अच्छा साहित्य है। यदि हमें जीवित रहना है और सभ्यता की दौड़ में अन्य जातियों की बराबरी करना है तो हमें श्रमपूर्वक, बड़े उत्साह से,सत्साहित्य का उत्पादन और प्राचीन साहित्य की रक्षा करनी चाहिए । और, यदि हम अपने मानसिक जीवन की हत्या करके अपनी वर्तमान दयनीय दशा में पड़ा रहना ही अच्छा समझते
हों तो आज ही इस साहित्य-सम्मेलन के आडम्बर का विसर्जन कर डालना चाहिए।
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साहित्यालाप
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