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वक्तव्य

आंख उठाकर ज़रा और देशों तथा और जातियों की ओर तो देखिए ! आप देखेंगे कि साहित्य ने वहां की सामाजिक और राजकीय स्थितियों में कैसे कैसे परिवर्तन कर डाले हैं; साहित्य ही ने वहां समाज को दशा कुछ की कुछ कर दी है; शासन-प्रबन्ध में बड़े बड़े उथल-पुथल कर डाले हैं ; यहां तक कि अनुदार धार्मिक भावों को भी जड़ से उखाड़ फेंका है । साहित्य में जो शक्ति छिपी रहती है वह तोप, तलवार और बम के गालों में भी नहीं पाई जाती। योरप में हानिकारिणी धार्मिक रूढ़ियों का उत्पाटन साहित्य ही ने किया है ;जातीय स्वातन्त्र्य के बीज उसीने बोये हैं; व्यक्तिगत स्वातन्त्र्य के भावों को भी उसीने पाला, पोसा और बढ़ाया है; पतित देशों का पुनरुत्थान भी उसीने किया है। पोप की प्रभुता को किसने कम किया है ? फांस में प्रजा की सत्ता का उत्पादन और उन्नयन किसने किया है ? पादाक्रान्त इटली का मस्तक किसने ऊँचा उठाया है ?

हित्य ने, साहित्य ने, साहित्य ने । जिस साहित्य में इतनी राक्ति है, जो साहित्य मुदों को भी जिन्दा करनेवाली सञ्जीवनी औषधि का आकर है, जो साहित्य पतितों को उठानेवाला और उत्थितों के मस्तक को उन्नत करनेवाला है उसके उत्पादन और संवर्धन की चेष्टा जो जाति नहीं करती वह अज्ञानान्धकार के गर्त में पड़ी रहकर किसी दिन अपना अस्तित्व ही खो बैठती है। अतएव समर्थ होकर भी जो मनुष्य इतने महत्त्वशाली साहित्य की सेवा और अभिवृद्धि नहीं करता अथवा उससे अनुराग नहीं रखता वह समाजद्रोही है, वह