पृष्ठ:साहित्यालाप.djvu/२८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२७६
साहित्यालाप


की चेष्टा करनी चाहिए। साहित्य की दा एक बहुत ही महत्वमयी शाखाओं को अस्तित्व में लाने के लिए ग्रन्थ प्रणयन के विषय में, ऊपर, मैं एक जगह प्रार्थना कर हो आया हूं। आप यह निश्चय समझिए, अपनी ही भाषा के साहित्य से जनता की यथेष्ट ज्ञानोन्नति हो सकती है। विदेशी भाषाओं के साहित्य से यह बात कदापि सम्भव नहीं। विदेशी साहित्य यदि हमारे साहित्य को दबा लेगा तो लाभ के बदले हानि ही होगी और इतनी हानि होगी जिसकी इयत्ता ही नहीं। हमारा इतिहास, हमारा विकास, हमारी सभ्यता बिलकुल ही भिन्न प्रकार की है। विदेशी साहित्य के उन्मुक्त द्वार से आई हुई सभ्यता हमारी सभ्यता को निरन्तर ही बाधा पहुचाती रहेगी। फल यह होगा कि हम अपने गौरव और अपने आत्म-भाव को भूल जायंगे। इससे हमारी जातीयता ही नष्ट हो जायगी। और, जो देश अपना इतिहास और जातीयता खो देता है उसके पास फिर रही क्या जाता है ? वह तो ज़िन्दा ही मुर्दा हो जाता है और क्रम क्रम से नामशेष होने के पास पहुंच जाता है। अतएव हमारा परम धर्म है कि हम अपने ही साहित्य की सृष्टि और उन्नति करें। एतदर्थ हमें चाहिए कि हम, हिन्दी के साहित्य-कोष में, अपने पूर्वपुरुषों के द्वारा अर्जित ज्ञान का भी सञ्चय करें और विदेशी भाषाओं के साहित्य में भी जो ज्ञान हमारे मतलब का हो उसे भी लाकर उसमें भर दें। विदेशी ज्ञान अरबी, फारसी, अगरेजी, फ्रेंच,जर्मन, चीनी, जापानी आदि किसी भी भाषा में क्यों न पाया