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वक्तव्य


निःशेष हो गया। इस कारण साहित्य-वृद्धि का काम सतत जारी रखना पड़ेगा। इससे आप समझ जायँगे यह काम कितना गौरव-पूर्ण, कितना महत्वमय और कितना बड़ा है।

साहित्य ऐसा होना चाहिए जिसके आकलन से बहुदर्शिता बड़े, बुद्धि की तीव्रता प्राप्त हो, हृदय में एक प्रकार की सञ्जीवनी शक्ति की धारा बहने लगे, मनोवेग परिष्कृत हो जायं, और आत्मगौरव की उद्भावना होकर वह पराकाष्ठा को पहुंच जाय । मनोरजन मात्र के लिए प्रस्तुत किये गये साहित्य से भी चरित्रगठन को हानि न पहुंचनी चाहिए। आलस्य,अनुद्योग, विलासिता का उद्बोधन जिस साहित्य से नहीं होता उसीसे मनुष्य में पौरुष अथवा मनुष्यत्व आता है। रसवती,ओजस्विनी, परिमार्जित और तुली हुई भाषा में लिखे गये ग्रन्थ ही अच्छे साहित्य के भूषण समझे जाते हैं।

साहित्य की समृद्धि के लिए किन किन विषयों के और कैसे कैसे ग्रन्थों की आवश्यकता है, यह निवेदन करने की‌ शक्ति मुझमें नहीं। जिस भाषा के साहित्य में, जिधर देखिये उधर ही, अभाव ही प्रभाव देख पड़ता है, उसकी उन्नति के निमित्त यह कहने के लिए जगह ही कहां कि यह लिखिए, वह लिखिए या यह पहले लिखिए वह पीछे । जो जिस विषय का ज्ञाता है अथवा जो विषय जिसे अधिक मनोरजक जान पड़ता है उसे उसी विषय की ग्रन्थ-रचना करनी चाहिए। साहित्य की जितनी शाखायें हैं-ज्ञानार्जन के जितने साधन हैं-सभी को अपनी भाषा में सुलभ करदेने