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साहित्यालाप


तक, नहीं हो जाते ? क्या पुराण हमारे ही पूर्वजों की यादगार नहीं? वे कैसे हो क्यों न हों, हमारे तो वे आदर ही के पात्र हैं। जिन्होंने पुराण पढ़ हैं वे जानते हैं कि वे समूल ही निःसार नहीं। उनमें, और हमारे महाभारत तथा रामायण में, हमारी सभ्यता के आदर्श चित्र भरे पड़े हैं। उनमें दर्शन-शास्त्रों के तत्त्व हैं; उनमें ज्ञान-विज्ञान को बातें हैं ; उनमें ऐतिहासिक विवरण हैं; उनमें काव्य-रसों की प्रायः सभी सामग्री हैं। अतएव वे हेय नहीं। ज़रा श्रीमद्भागवत के सातवें स्कन्ध के दूसरे अध्याय ही को देख लीजिए । नीच योनि में उत्पन्न माने गये दैत्य हिरण्यकशिपु ने उसमें कितनी तत्वदर्शिता प्रकट की है-अपने गम्भीर ज्ञान की कैसी अद्भुत बानगी दिखाई है ! वह ज्ञानप्रदर्शन पुराणकार ही कामाल क्यो न मान लिया जाय; वह वहां विद्यमान तो है। इसी तरह विष्णुपुराण में आपको मगधनरेशों के कुछ ऐसे ऐतिहासिक वर्णन मिलेंगे जिनको असत्य ठहराने का साहस, आज कल, इस बोसवीं सदी के भी धुरन्धर इतिहासवेत्ता नहीं कर सकते।

मौलिक साहित्य-रचना की तो बड़ी ही आवश्यकता है। पर उसके साथ ही साथ, हमारी सभ्यता के सूचक प्राचीन साहित्य के हिन्दी-अनुवाद की तथा विदेशी भाषाओं के भी ग्रन्थरत्नों के अनुवाद की आवश्यकता है-फिर, व ग्रन्थ चाहे अंगरेज़ी भाषा के हों, चाहे अरबी, फ़ारसी के हों, चाहे और ही किसी भाषा के हों। विज्ञानाचार्य सर जगदीशचन्द्र बसु की विज्ञान-विचक्षणता और अद्भत