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वक्तव्य


ज़ोर दीजिए कि शक्ति, सामर्थ्य और योग्यता रखनेवाले विद्वान मौलिक ग्रन्थों की भी रचना करके अपनो विद्या और शिक्षा को सफल और सार्थक करें।

सज्ञान होकर भी जो मनुष्य अपने पूर्वजों के गौरव की रक्षा नहीं करता, शिक्षित होकर भी जो मनुष्य अपनी भाषा का आदर नहीं करता, समर्थ होकर भी जो मनुष्य‌ अपने साहित्य की परिपुष्टि करके अपनी जाति और अपने देश को ज्ञानोन्नत नहीं करता वह अपने कर्तव्य से च्युत समझा जाता है। मातृभूमि और मातृभाषा दोनों ही के लिए उसका होना न होना एक ही सा है। अपनों का प्यार न करनेवाले-अपनों के सुख-दुःख में शामिल न होनेवाले–के लिए बस एक ही काम रह जाता है। वह है भिक्षापात्र लेकर दूसरोंके द्वार पर, हर बात के लिए, फेरी लगाना । जीवन्मृत या आत्महन्ता की संज्ञा का निर्माण ऐसेही मनुष्यों के लिए हुआ है। कृपा करके ऐसे पुरुषपुङ्गवों को इस संज्ञा-निर्देश से बचा लीजिए।

१०--हिन्दी-भाषा के द्वारा उच्च शिक्षा ।

मातृभाषा के साहित्य का महत्त्व बहुत उच्च है। परन्तु इन प्रान्तों में उसीकी शिक्षा का बहुत कुछ अभाव देखकर हृदय में उत्कट वेदना उत्पन्न होती है। बड़ी कठिनता से हाई स्कूलों के आठवें दरजे तक तो हिन्दी को किसी तरह दाद मिल गयी है, पर आगे नहीं। बम्बई-विश्वविद्यालय में मराठी साहित्य की उच्च शिक्षा का प्रबन्ध है ; मदरास-विश्वविद्यालय