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साहित्यालाप


में तामील और तेलगू भाषाओं का निर्वाध प्रवेश रहे : कलकत्ता-विश्वविद्यालय में भी बङ्गला-भाषा का साहित्य उच्चासन पर आसीन है-उसमें तो हिन्दी-साहित्य के प्रवेश का भी द्वार खुल गया है-पर, जिन अभागे संयुक्त-प्रान्तों की भाषा हिन्दी अथवा हिन्दुस्तानी है उनके विश्वविद्यालय में वह अछूत जातियों की तरह अस्पृश्य मानी जाती है। उसके तो नाम ही से कुछ सदाशय देश-बन्धुओं के मुंह से “दुर दूर" की आवाज़ निकला करती है। उन्हें तो आठवें दरजे तक भी हिन्दी का प्रवेश खटकता है ; उनकी सम्मति में उसके प्रवेश से अगरेज़ी-भाषा की शिक्षा में विघ्न उपस्थित होता है । सुदूरवर्ती और द्राविड़-भाषा-भाषी मदरास-प्रान्त के माध्यमिक दर्जा ( Intermediate Classes ) में तो हिन्दी पढ़ाई जाय-ऐच्छिक विषयों में उसके अध्ययन की भी स्वीकृति वहां का विश्वविद्यालय दे दे-पर अपने ही घर में, अपने ही प्रान्त में, बेचारी हिन्दी धसने तक न पावे। अपनी भापा के साहित्य का इतना निरादर और उसके साथ इतना अन्याय क्या किसी और भी देश, अथवा इसी देश के क्या किसी और भी प्रान्त में देखा जाता है ? इलाहाबाद-विश्वविद्यालय के जिन सेनेटरों को इन प्रान्तों की भूमि अपने ऊपर धारण करती है और जिनके बूटों की ठोकरें खाया करती है उनकी इस उदारता के लिए उन्हें अनेक धन्यवाद ! जिस भाषा को उन्होंने अपनी माँ से सीखा, जिस की कृपा से ही वे अङ्गरेजी भाषा और अङ्गरेजी के साहित्य