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साहित्यालाप


और प्राकृत चाहे उसकी माता हो चाहे मातामहो, चाहे और कुछ, इस निर्णय का अधिकारी मैं नहीं और न इसका निर्णय करने या इस विषय में शास्त्रार्थ करने की शक्ति ही मुझमें है। मेरा निवेदन तो इतना ही है कि संस्कृत और प्राकृत से घनिष्ट सम्बन्ध रखने पर भी, हिन्दी भिन्न भाषा है और भिन्न होने के कारण वह उन भाषाओं से अपनी निज की कुछ विशेषता रखती है। इससे संस्कृत या संस्कृत-व्याकरण के नियमों पर, आंख मूंद कर, चलने के लिए वह बाध्य नहीं।

जिस शब्द के साथ जिस विभक्ति का योग होता है वह उसीका अंश हो जाती है, इसमें सन्देह नहीं। पर क्या इसी कारण से वैयाकरणों को यह हुक्म देने का अधिकार प्राप्त हो जाता है कि विभक्तियों को शब्दों से जोड़ कर ही लिखा; उनके बीच ज़री भी कारी जगह, अर्थात् “स्पेस," न छोड़ो? क्या संस्कृत-व्याकरण में भी कोई नियम ऐसा है ? अनन्त काल से संस्कृत-भाषा लिखने में विभक्कियां ही नहीं, बड़े बड़े शब्द, वाक्य, श्लोक और सतरें की सतरे तक मिला कर ही लिखी जाती रही हैं और अब भी पुरानी चाल के पण्डितों के हाथ से लिखी जाती हैं। क्या इसके लिए भी संस्कृत-व्याकरण में कोई नियम है ? क्या इस तरह की संलग्नता से संस्कृत-भाषा में कुछ विशेषता आगई? क्या उसकी उन्नति और साहित्य-वृद्धि का कारण यह संलग्नता भी मानी जा सकती है? अथवा क्या इससे उसे कुछ हानि पहुंची?