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साहित्यालाप


हैं। साट सत्तर वर्ष पूर्व छपी हुई हिन्दी पुस्तकों में भी, संस्कृत ही के सदृश, लम्बो शब्द-संलग्नता विद्यमान है । अनेक नई बाजा़रू पुस्तकों में, अब भी, उसके दर्शन होते हैं । बताइए, इस संलग्नता ने हिन्दी-साहित्य की कितनी उन्नति की ? अथवा शताब्दियों से प्रचलित शब्द-संलग्नता अरबी और फ़ारसी भाषाओं की भी कितनी उन्नति और श्रीवृद्धि का कारण हुई ? संलग्नता और असंलग्नता की बात तो अभी चार दिन की है। उसकी उद्भावना का कारण पुस्तकों आदि का टाइप द्वारा छपना है । उसके पहले तो यह बात किसीके ध्यान में भी न आई होगी; क्योंकि स्पेस देने, अर्थात् शब्दों के बीच में जगह छोड़ने के उत्पादक "स्पेस" ही हैं । अतएव जो संलग्नता के पक्षपाती है अथवा जो कागज़ के खर्च में कुछ बचत करना चाहते हैं वे, मराठीभाषा के लेखकों की तरह, खुशी से विभक्तियों को शब्दों के साथ मिला कर ल़िखें । परन्तु जो उनकी इस प्रणाली के अनुयायी नहीं उनपर आक्षेप करने और उनकी हंसी उड़ाने के लिए व्याकरण उन्हें शरण नहीं दे सकता । जो प्रणाली अधिक सुभोते की होगी या जिसका आश्रय अधिक लेखक लेंगे वह आप ही चल जायगी और उसकी विपरीत प्रणाली परित्यक्त हो जायगी। लिपि की सादृश्य-रक्षा के ख्याल से यदि इस विवाद की नींव डाली गई हो तो बलवत् कोई किसीकी रुचि या आदत को नहीं बदल सकता । जिन्हें विभक्तियां अलग लिखना ही अच्छा लगता है और जो जान बूझकर वैसा लिखना नहीं छोड़ते, दुर्वाक्यों का प्रयोग उन्हें