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पृष्ठ:साहित्यालाप.djvu/३१२

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वक्तव्य


देख कर वे लोग भी इनकी उपयोगिता और देशव्यापक होने की योग्यता के कायल होते जारहे हैं, जिनका सम्बन्ध इनसे बहुत दूर का है अथवा है ही नहीं। तथापि, जहां तक हो सके हमें अपने मुसल्मान भाइयों की भाषा और लिपि भी सीखनी चाहिए। बिना ऐसा किये पारस्परिक प्रेम, ऐक्य और घनिष्टता की संस्थापना नहीं हो सकती। जब हम हज़ारों कोस दूर रहनेवाले विदेशियों की-अंगरेज़, फ्रेंच और जर्मन लोगों की-भाषायें सीखते हैं तब कोई कारण नहीं कि हम उनकी भाषा और लिपि न सीखें जो हमारे पड़ोसी हैं, जिनका और हमारा भाग्य एक ही सूत्र से बँधा हुआ है और जिनका और हमारा चोलो-दामन का साथ है। मेरा तो यह विचार है कि हमें उर्दू, फ़ारसी ही नहीं, हो सके तो अरबी भाषा का भी ज्ञान-सम्पादन करना चाहिए, क्योंकि उसके साहित्य में अनन्त ज्ञान-राशि भरी हुई है और ज्ञान चाहे जहां मिलता हो उसकी प्राप्ति प्रयत्नपूर्वक करना ही मनुष्य का कर्तव्य है। परन्तु इससे यह मतलब नहीं कि हम अपनी भाषा और अपनी लिपि सीखने और उसे उन्नत करने के कर्तव्य की अवहेलना करें। नहीं, हमें पहले उनको आयत्त करके तब अन्य भाषायें सीखनी चाहिए। चूकि हिन्दी ही भारत की व्यापक भाषा हो सकती है और अपने प्रान्तों के निवासियों में अधिक संख्या उसीके ज्ञाताओं की है, इसलिए उस का प्रचार बढ़ाने और सरकारी दफ्त़रों में उसी की प्रवेशप्राप्ति के लिए चेष्टा भी करनी चाहिए।

यद्यपि कुछ मुसल्मान भाइयों की प्रवृत्ति हिन्दी भी सीखने