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वक्तव्य

रोमन-लिपि को अपना थोड़ा बहुत आश्रय दे भी चुकी है। पर उसको खबर हम लोगों में से बहुतों को शायद न होगी। देशी फौजों के लिए क़वायद, परेड वगैरह की जो पुस्तके प्रकाशित होती हैं उनमेसे कुछ पुस्तके रोमन-लिपि में भी छपती हैं। अब यदि यह बात यहीं तक रहे तो भी ग़नीमत समझिए। अँगरेज़ी भाषा ने अपने देश की भाषाओं को बहुत कुछ दबा ही लिया है। यदि रोमन-लिपि हमारी लिपियों पर भी आक्रमण कर के प्रारम्भिक पाठशालाओं में पहुँच जायगी तो रोग असाध्य नहीं, तो कष्टसाध्य जरूर हो जायगा। भगवान् न करे कभी ऐसा दिन आवे ; पर यदि दुर्भाग्य से आ ही जाय तो हमारी और हमारी जातीयता की अपरिमेय हानि हो जायगी । अतएव हमें अभीसे सावधान हो जाना चाहिए और प्रतिकार का उद्योग करना चाहिए।


१८-उपसंहार।

हिन्दी की उन्नति के लिए अभी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। सच तो यह है कि उसके उन्नति-सम्बन्धी कार्य की सीमा ही नहीं ; वह तो निःसीम है। क्योंकि ऐसा समय कभी पाने ही का नहीं जब यह कहा जा सके कि हिन्दी-साहित्य उन्नति की चरम सीमा को पहुंच गया; और अधिक उन्नति के लिए अब जगह ही नहीं। बात यह है कि शान अनन्त है। उसकी पूर्णता को प्राप्त कर लेना क्षुद्र मनुष्य के बुद्धि-वैभव और पहुँच की मर्यादा के बाहर है।