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साहित्यालाप


तथापि मनुष्य श्रम,खाज, अनुभव, अध्ययन और चिन्तन के द्वारा ज्ञान का उपार्जन, दिन पर दिन, अधिकाधिक कर सकता है। संसार की समस्त भाषाओं में आज तक ज्ञान का जितना सञ्चय हुआ है वह इसी तरह धीरे धीरे हुआ है। यदि यह समस्त ज्ञान-राशि हिन्दी-भाषा के साहित्य में भर दी जाय तो भी भावी ज्ञानार्जन के सन्निवेश की आवश्यकता बनी ही रहेगी। इस दशा में, हिन्दीही के नहीं, किसी भी भाग के साहित्य की उन्नति का काम प्रलयपर्यन्त बराबर जारी रह सकता है। ज्ञानार्जन की इस अनन्त मर्यादा की ओर बढ़ने के बड़े बड़े काम बड़े बड़े ज्ञानियों, विज्ञानियों, ग्रन्थकारों और साहित्य-सेवियों को करने दीजिए। वह काम उन्हीं का है। पर साथ ही, परिमित विद्या, बुद्धि, योग्यता और शक्ति के आधार, साधारण जनों का भी तो कुछ कर्तव्य होना चाहिए । अपनी मातृ-भाषा का जो ऋण उनपर है उससे उद्धार होने के लिए उन्हें भी तो कुछ करना चाहिए ।

अच्छा, तो आइए, हम जैसे परिमित-शक्तिशाली जन यह प्रण करें कि आज से हम अपने कुटुम्बियों, अपने मित्रों और इतर ऐसे लोगों के साथ जो हिन्दी लिख-पढ़ सकते हैं, बिना विशेष कारण के, कभी किसी अन्य भाषा में पत्र-व्यवहार न करेंगे और बातचीत में कभी, बीच बीच, अँगरेज़ी भाषा के शब्दों का अकारण प्रयोग करके अपनी भाषा को न बिगाड़ेंगे-उसे वर्णसङ्करी, उसे दोगली, न बनायेंगे। कितने परिताप और कितनी लज्जा की बात है कि पिता अपने पुत्र