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साहित्यालाप


हो तो अब हमें अपनो इस बुरी आदत को एकदम ही छोड़ देना चाहिए।

मेरा यह कदापि मतलब नहीं कि आप विदेशी भाषायें न सीखिए । विदेशी भाषाओं के द्वारा अपने विचार न प्रकट कीजिए ; विदेशी भाषाओं में पत्र न लिखिए । अंगरेज़ीही नहीं, आप अरबी, फ़ारसी तुर्कीं, फ्रेंच, जर्मन, लैटिन, ग्रीक और हेब्रू आदि, ज़िन्दा या मुर्दा, जितनी भाषायें चाहे सीख कर उनमें निबद्ध शान-राशि का अर्जन कीजिए। जो लोग अपनी भाषा नहीं जानते उनसे, आवश्यकता पड़ने पर, उन्हीं की भाषा में बातचीत भी कीजिए और उन्हीं की भाषा में पत्र-व्यवहार भी। अपना रोब दिखाने और योग्यता या प्रभुता की धाक जमाने के लिए भी, यदि आपसे रहाही न जाय तो,क्षण भर, अँगरेज़ी या अन्य विदेशी भाषाओं में अपने मानसिक विचार प्रकट कीजिए। पर, परमेश्वर के लिए-अपने और अपने देश के हित के लिए.-बोलचाल में, अपनी भाषा के पावन क्षेत्र में, वर्ण-साङ्कर्य का अपावन बीज न बोइर और अपने आत्मीयों आदि के साथ, अकारणही, विदेशी भाषाओं में पत्रव्यवहार न कीजिए। अपनी मातृभाषा के सम्बन्ध के इस इतने भी कर्तव्य का पालन यदि हम न करेंगे ते मुझे खेद के साथ यही कहना पड़ेगा कि उस अभागिनी की उन्नति की अभी विशेष आशा नहीं-अथवा मिस्टर माँटेगू और लार्ड हार्डिंग के द्वारा उद्धत की गई फ़ारसी की पुरानी मसल के अनुसार "हनोज़ देहली दूरस्त" ।