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साहित्यालाप
लेख को एक बार पढ़ लें जो “राजपूत हेरल्ड" में प्रकाशित
हुआ है। उससे उन्हें मालूम हो जायगा कि उनकी अरबी लिपि को पादरी साहब यहां की सार्वदेशिक लिपि होने योग्य नहीं समझते। इस दशा में, यदि वे हिन्दुस्तान को अपना देश समझते हों तो देवनागरी-लिपि को उन्हें भी आश्रय देना चाहिए, नहीं तो देवनागरी भी जायगी और अरबी-फ़ारसी भी। उनकी जगह रोमन ले लेगी, जो हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों, के लिए बड़े ही दुःख की बात होगी।
[जुलाई १९१३]