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साहित्यालाप


पस दौड़े आवेंगे । आम की मञ्जरी क्या कभी मारा को बुलाने जाती है ?

न रत्नमन्विष्यति मृग्य हि तत् ।

खात यह ।

आज कल के कुछ काव काय-कर्म में कुशल ना-प्राप्ति की चेष्टा तो कम करते हैं, आडम्बर-रचना की बहुत । शुद्ध लिखना तक सीखने के पहले ही वे कवि बन जाते है और अनोखे अनोखे उपनामों की लाड़गूल लगाकर अनाप-शनाप लिखने लगते हैं । वे कमल, विमल, यमल और अरबिन्द, मिलिन्द,मकरन्द आदि उपनाम धारण करके अखबारों और सामयिक पुस्तकों का कलेवर भरना प्रारम्भ कर देते हैं। अपनी कविताओं ही में नहीं, यों भी जहां कहीं वे अपना नाम लिखते हैं,काव्योपनाम देना नहीं भूलते । यह रोग उनको उर्दू के शायरों की बदौलत लग गया है । पर इससे कुछ भी होता जाता नहीं । शेक्सपियर, मिलन, बाइरन और कालिदास, भारवि, भवभूति आदि कवि इस रोग से बरी थे। फिर भी उनके काव्यों का देश-देशान्तरों तक में आदर है । उपनाम-धारण को असारता उर्दू, हो के प्रसिद्ध कवि चकवस्त ने खूब समझी थी। उनका कथन है-

ज़िक्र क्यों आयेगा बमे शुअरा में अपना,

मैं तख़ल्लुस का भी दुनिया में गुनहगार नहीं।

अनूठे अनूठे तख़ल्लुस ( उपमा) लगाने से किसीकी प्रसिद्धि नहीं होती। चकवस्तजी का क़ौल है-