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आज कल के छायावादी कवि और कविता


सकता है ? अथवा दिखाने से भी क्या अन्धा मनुष्य सूर्य-‌बिम्ब देख सकता है ?

अब आप ही कहिए कि जिन्होंने कवित्व-प्राप्ति विषयक कुछ भी शिक्षा नहीं पाई, जिन्होंने उस सम्बन्ध में वर्ष दो वर्ष भी अभ्यास नहीं किया और जिन्होंने इस बात का भी पता नहीं लगाया कि उनमें कवित्व-शक्ति का बीज है या नहीं वे यदि बलात् कवि बन बैठे और दुनियां पर अपना आतङ्क जमाने के लिए कविता-विषयक बड़े बड़े लेक्चर झाड़े तो उनके कवित्व की प्रशंसा की जानी चाहिए या उनके साहस, उनके धाष्टर्य और उनके अविवेक की । उस दिन सत्रह अठारह वर्ष का एक लड़का इस किङ्कर के पास आया। उसकी बगल में उसकी लिखी हुई, कोई डेढ़ दर्जन " कविताओं" के कागज़ों का एक बगडल था । वे सब कवितायें वह कुछ सभाओं में सुना चुका था। उनकी कापियां वह कुछ अरनबारों को भी भेज चुका था। उसे शब्द-शुद्धि तक का शान न था। उसकी तुक-बन्दियों में एक नहीं अनेक छन्दोभङ्ग तक थे। तथापि वह अपने मन से कवि बन बैठा था। बहुत कुछ कहने सुनने से उसने लघुकौमुदी पढ़ डालने का वचन दिया। आजकल ऐसे ही कवियों की धूम है। समाचार पत्रों और सामयिक पत्रिकाओं के सम्पादकों को भी कई कारणों से निरुपाय हो कर, ऐसों ही की कात-कूत को ग्रहण करना पड़ता है । इसी से कविता के एक विशेषज्ञ ने अपने हार्दिक उद्गार, अपने‌ एक पत्र में, इस प्रकार निकाले हैं-