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पृष्ठ:साहित्यालाप.djvu/३४१

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साहित्यालाप


"आज-कल जो हिन्दी कवितायें निकलती हैं उन्हें में 'अस्पृश्य' समझ कर दूर हो ने छोड़ देता हू। पहले कुछ पढ़ी: पर चित्त में दुःख हुआ । तब से उन्हें देखना ही बन्द कर दिया। आज-कल के कवि-पुङ्गवों और उपन्यास लेखको से तो जी ऊब उठा है । क्या कहें और किससे कहे ? सबसे बड़ी मुश्किल तो यह है कि यदि कुछ समझाया जाय तो ये बदनसीब समझ भी नहीं सकते" ( यहां पर लेम्बक ने अपने पत्र में‌ "बदनसीब" के पर्यायवाची एक ऐसे शब्द का प्रयोग किया है जो बहुत कठोर है । अतएव वह नहीं लिखा गया)।

इसपर प्रार्थना इतनी ही है कि आज कल के सभी कवि ऐसे नहीं। उनमें से दो चार सत्कवि भी है जिनकी रचना पढ़ कर कोई भी सरसहाय कविता-प्रेमी आनन्दमन हुए बिना नहीं रह सकता । इस बात के दो एक प्रमाण, आगे चल कर, सोदाहरण, दिये जायंगे ।

अच्छा, कविता कहते किसे हैं ? इस प्रश्न का उत्तर बहुत टेढ़ा है। इस लिए कि इस विषय में, आचार्यों और विशेषज्ञों में, मतभेद है। कविता कुछ सार्थक शब्दों का समुदाय है अथवा यह कहना चाहिए कि वह ऐसे ही शब्द-समुदाय के भीतर रहनेवाली एक वस्तु-विशेष है । कोई तो कहता है कि ये शब्द या वाक्य यदि सरस हैं तभी कविता की कक्षा के भीतर पा सकते हैं । कोई उनके अर्थ को रमणीयता सापेक्ष्य बतलाता है। कोई उनमें उनके भाव के अनूठेपन की पंख लगाता है । कोई इन विशेषताओं के साथ शब्द-शुद्धि, छन्द:-