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साहित्यालाप


अधिक और उतना ही शीघ्र सफल हो जायगा। जिस लेख या कविता में यह गुण होता है उसकी प्रासादिक संज्ञा है।कविता में प्रसाद गुण यदि नहीं तो कवि की उद्देश्यसिद्धि अधिकांश में व्यर्थ जाती है। कवियों को इस बात का सदा ध्यान रखना चाहिए । जो कुछ कहना हो उसे इस तरह कहना चाहिए कि वह पढ़ने या सुननेवालों की समझ में तुरन्त ही आजाय। इसे तो आप कविता का पहला गुण समझिए । दुसरा गुण कविता में यह होना चाहिए कि कवि के कहने के ढङ्ग में कुछ निरालापन या अनूठापन हो-वह अपने मन के भाव को इस तरह प्रकट करे जिससे पढ़ने या सुननेवाले के हृदय में कोई न कोई विकार जागृत, उत्तेजित या विकसित हो उठे । विकारों का उद्दीपन जितना ही अधिक होगा कवि की कविता उतनी हो अधिक अच्छी समझी जायगी । यह भो न हो तो उसका कविता सुन कर श्रोता का चिन ना कुछ चमत्कृत हो । यदि कवि में इतना सामर्थ्य नहीं कि वह दूसरों के हृदयों को प्रभावान्वित कर सके तो कम से कम उसे अपनी बात ऐसे शब्दों में तो ज़रूर ही कहनी चाहिए जो कान को अच्छी लगे। कथन में लालित्य होना चाहिए। उसमें कुछ माधुर्य होना चाहिए । कविता के शास्त्रीय लक्षणों की परवा न करके जो कवि कम से कम इन तीनों गुणों में से, सबके न सही, एक ही दो के साधन में सफल होने की चेष्टा करेंगे उन्हींकी कविता न्यूनाधिक अंश में, कविता कही जा‌ सकेगी।