पृष्ठ:साहित्यालाप.djvu/३४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३४०
साहित्यालाप


जब वह श्रोताओं को किसी विशेष विकार में मग्न करना अथवा किसी विशेष दशा में लाना चाहता है तब वह कार ऐसे भावों का उन्मेष करता है कि श्रोता मुग्ध हो जाते है और विवश से हो कर कवि के प्रयत्न को बिना विलम्ब सफल करने लगते हैं। यदि वह उनसे कुछ कराना चाहता है तो करा कर ही छोड़ता है । सत्कवि के लिए ये बातें सर्वथा सम्भव हैं।

यदि किसी कवि की कविता में केवल शुरु विचारों का विजृम्भरण है; यदि उसकी भाषा निरी नीरस है;यदि उसमें कुछ भी चमत्कार नहीं तो ऊपर जिन घटनाओं की कल्पना की गई उनका होना कदापि सम्भव नहीं। और यदि उसकी क्लिट कल्पनाओं और शुष्क शब्दाडम्बर के भीतर छिपे हुए उसके मनोभाव श्रोताओं की समझ ही में न आये ना कोढ़ में खाज ही उत्पन्न हो गई समझिए। ऐसी कविता से प्रभावान्वित होना तो दूर उसे पढ़ने तक का भी कष्ट शायद ही कोई उठाने का साहस कर सके । बात यदि समझ ही में न आई तो पढने या सुननेवाले पर असर पड़ कैसे सकता है? जो कवि शब्द-चयन, वाक्य-विन्यास और वाक्य समुदाय के आकार-प्रकार की कांट छांट में भी कोशल नहीं दिखा सकते उनकी रचना विस्मृति के अन्धकार में अवश्य ही विलीन हो जाती है। जिसमें रचना-चातुय्य तक नहीं उसकी कवियशा-लिप्सा बिडम्बना मात्र है। किसीने लिखा है-