पृष्ठ:साहित्यालाप.djvu/३४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३४१
आजकल के छायावादी कवि और कविता


तान्यर्थरत्नानि न सन्ति येषां

सुवर्णसङ घेन च ये न पूर्णाः ।

ते रीतिमात्रेण दरिद्रकल्पा

यान्तीश्वरत्वं हि कथं कवोनाम ?

जिनके पास न तो अर्थरूपी रत्न ही हैं और न सुवर्ण-रूपी सुवर्णसमूह ही है वे कवियों की रीति-मात्र का आश्रय लेकर- कांसे और पीतल के दो-चार टुकड़े रखनेघाले किसी दरिद्रकल्प मनुष्य के सदृश भला कहीं कवीश्वरत्व पाने के‌ अधिकारी हो सकते हैं ? "कवि-वर, कविचक्रवर्ती, कविरत्न, आशुकवि और कवि-सम्राट् की सनद अपने नाम के आगे(और कभी कभी पीछे ) लगा कर सर्व-साधारण की आंखों में धूल डालना जितना सरल है उतना शास्त्र-सम्मत और सत्समालोचकों के सिद्धान्त के अनुसार कविवर तो क्या केवल कवि तक बनना कठिन है । कवित्व का महत्त्व काव्य-मर्मज्ञ ही समझता है।" यह फ़रवरी १९२७ की सरस्वती में प्रकाशित एक शास्त्री महाशय की सम्मति है, जो सर्वथा ठीक है।

आजकल जो लोग रहस्यमयी या छायामूलक कविता लिखते हैं उनकी कविता से तो उन लोगों की पद्य-रचना अच्छी होती है जो देश-प्रेम पर अपनी लेखनी चलाते या "चलो वीर पटुआखाली" की तरह की पङक्तियों की सृष्टि करते हैं। उनमें कविता के और गुण भलेही न हो, पर उनका मतलब तो समझ में आजाता है। पर छायावादियों की रचना तो कभी