जाना जिनका कोई अर्थ ही न समझ सके, ये कवि अपने कवित्व की पराकाष्ठा समझने लगे हैं।"
लीजिए, उसी पूर्वनिर्दिष्ट दोष को बाबू साहब भी दुहग रहे हैं। व्यास ने महाभारत लिखा तो हम भी महाभारत लिखेंगे। होमर ने इलियड लिखा तो हम भी वैसाही काव्य लिख डालेंगे। बात यह ? क्यों न ? यह इन कवियों के कवित्व की पराकाष्ठा तो नहीं, अविवेक की पराकाष्ठा अवश्य है।
कल्पना कीजिए कि कविचक्रचूड़ामणि चन्द्रचड़ चतुर्वेदी छायात्मक कविता के उपासक है। आपको विश्वविधाता के रचना-चातुर्य का वर्णन करना है । यह काम ये प्रत्यक्ष रीति पर करना चाहते नहीं। इसलिए उन्होंने किसी माली या कुम्भकार का आश्रय लिया और लगे उसके कार्य कलाप की खूबियों का चित्र उतारने । अब उस माली या कम्हार की कारीगरी का वर्णन सुन कर प्रतिपद, प्रतिवाक्य, प्रतिपद्य में ब्रह्मदेव की कारीगरी का यदि भान न हुआ तो कवीश्वरजो अपनी कृति में कृत-कार्य कैसे समझे जा सकगे। इस तरह का परोक्ष वर्णन क्या अल्पायास-साध्य होता है ? क्या यह काम किसी ऐसे-वैसे कवि के बूते का है ? रवीन्द्रनाथ ने जो काम कर दिखाया है वह क्या सभी ऐरे-गैरे कर दिखा सकते हैं ? जब ये लोग अपने लेख का भाव कभी कभी स्वयं ही नहीं समझा सकते तब दूसरे उसे कैसे समझ सकेंगे? अफ़सेास तोइस बात का है कि