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आजकल के छायावादी कवि और कविता


भी नहीं समझा सकते । ऐसी कविताओं से क्या लाभ है, मैं नहीं जानता"।

इससे अधिक आश्चर्य की बात भला और क्या हो सकती है कि स्वयं कवि भी अपनी कविता का मतलब दूसरोंको न समझा सके । यह शिकायत शिवन्न शास्त्री ही की नहीं, और भी अनेक कविता-प्रेमियों की है। ऊपर, एक जगह, लखनऊ के एक साहित्य-शास्त्री के उलाहने का उल्लेख हो ही चुका है। अपने प्रान्त के नामी साहित्यसेवी, लेखक और सम्पादक राय-साहब बाबू श्यामसुन्दरदासजी क्या कहते हैं, सो भी सुन लीजिए । उस दिन इलाहाबाद के कायस्थ-पाठशाला-कालेज के बोर्डिग हौस में, हिन्दी-साहित्य के विकास के सम्बन्ध में, उन्होंने एक अभिभाषण किया था। उसके सिलसिले में उन्होंने कहा-

"छायावाद और समस्यापूर्ति से हिन्दी कविता को बहुत हानि पहुंच रही है । छायावाद की और नवयुवकों का झुकाव है और ये जहां कुछ गुनगुनाने लगे कि चट दो-चार पद जोड़कर कवि का साहस कर बैठते हैं । इनकी कविताओं का अर्थ समझना कुछ सरल नहीं है । कविता लिखने के अनन्तर बेचारा कवि भी उसके अर्थ को भूल जाता है और उसके भाव तक को समझाने में असमर्थ हो जाता है। पूज्य रवीन्द्रनाथ का अनुकरण करके ही यह अत्याचार हिन्दी में हो रहा है । उस कविश्रेष्ठ की विद्या-बुद्धि की समता करने में असमर्थ होते हुए भी कुछ ऐसी बाते कह