येरे अभिमानी गुरु नानी भये कहा भयो
नामी नर होत गरुड़गामी के हेरे त।
इस पर सहदयों से प्रार्थना इतनी ही है कि वही इसका फंसिला करें कि किसे वे कविता समझते हैं-इस ऊपर के अवतरण को या छायावादी की "आया !" को।
अब उ की चोट अपने बी० ए० पास होकर निकलने की खबर सुनानेवाले एक और कवि की करामात देखिए । आपकी कविता का नाम है- 'ज्वार' । ज्वार से मतलब इस नाम के अन्न से नहीं, समुद्र में उठने वाले ज्वार-भाटे के ज्वार से है। कविजी के विशाल हृदयसागर में ज्वार उठने पर आपने जो कुछ फरमाया है वह यह है-
हृदय हमारा उमड़ रहा क्यों उठता है कैसा नफान ।
उथल-पुथल यह मचा रहा क्यों ? और उठाता (क्यों? मधुर उफान ?॥१॥
दुख की अन्तिम घड़ियों का मैं देख रहा हूं क्या यह अस्त ?
छिपा हुआ है इस 'पतझड़' में क्या जीवन का नवल 'वसन्त' ? ॥२॥
आता है क्या 'वह' मिलने को ? मचल रहा त जिसको जान : संभल !-कहीं तू भूल न जाना ! लख कर दोनों रूप समान ॥३॥
इसमें प्रश्नचिए, आश्चर्यचिह, कामा इत्यादि जितने हैं सब कविजी ही के दिये हुए हैं: या, सम्भव है, प्रेस के कर्मचारियों<ब्र>