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पृष्ठ:साहित्यालाप.djvu/४

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निवेदन

मानवी प्रकृति पर परिस्थिति का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। स्थिति चाहे जितनी ही प्रतिकूल और दोषपूर्ण हो, धीरे धीरे, वह स्वाभाविक सी हो जाती है। स्वाधीनता के सदृश सुख नहीं और पराधीनता के सदृश दुःख नहीं। तथापि, चिरकाल तक पराधीन रहनेवाली जातियां अपनी उस स्थिति में भी सन्तोष मानने लगती हैं। जो मनुष्य दस पाँच वर्ष जेल में रह जाता है, वह, वहां से निकलने पर, फिर वहीं पहुँचने के लिए, कभी कभी, जुर्म कर बैठता है। ऐसों को जगाने उन्हें अपनी दूषित दुर्वासनाओं को छोड़ने—के लिए बहुत प्रयत्न की आवश्यकता होती है।

सुसभ्य, शिक्षित और जागृत देश अपनी स्वाधीनता ही के सदृश अपनी मातृभाषा की भी रक्षा, जी जान से, करते हैं। रक्षा ही नहीं, वे उसकी दैनंदिन उन्नति के लिए भी सदा सचेष्ट रहते हैं। वे जानते हैं कि स्वाधीनता की रक्षा के लिए स्वभाषा की रक्षा और उन्नति अनिवार्य्य है। पर अनेक कारणों से यह बात इस देश के निवासियों के ध्यान में बहुत समय तक नहीं आई। इस त्रुटि या इस विस्मृति का ज्ञान हुए अभी मुश्किल से साठ सत्तर वर्ष हुए होंगे। जिन प्रान्तों में शिक्षा का प्रचार और उसका विस्तार औरों की अपेक्षा अधिक हुआ,