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साहित्यालाप


में न तो वह वहां पर शोभित ही होता है और न कुछ कहता ही है। हां, जड़नेवाले की बुद्धिमानी की सब लोग चर्चा अवश्य करते हैं ! अतएव हिन्दी के वर्तमान साहित्य का विचार न करके उसकी योग्यता ही का विचार करना उचित है। और योग्यता का विचार करने पर सबको यही स्वीकार करना पड़ेगा कि वह देश-व्यापक भाषा होने के सर्वथा योग्य है इसलिए उसकी साहित्य-विषयक न्यूनता, उसे व्यापक भाषा बनाने की किसी प्रकार अवरोधक नहीं।

हिन्दी लिपि और हिन्दी भाषा के प्रचार का यदि निश्चय भी किया जाय तो गवर्नमेंट उसे स्वीकार करेगी या नहीं ? यह एक प्रश्न है। हम नहीं जानते, गवर्नमेंट इसमें क्यों बाधा डालेगी। एक लिपि और एक भाषा होने से गवर्नमेंट को सब प्रकार लाभ ही लाभ है ; हानि नहीं। इस समय अधिकारियों को जो बँगला, गुजराती और तामील आदि क्लिष्ट लिपियां और क्लिष्ट भाषायें सीखनी पड़ती हैं वे उन्हें न सीखनी पड़ेगी। इन कष्ठसाध्य भाषाओं को सीखने में योरोपियन सिबिलियन अधिकारियों को बहुत समय लगता है ; बहुत कष्ट उठाना पड़ता है ; परन्तु तिस पर भी उनको उनका यथोचित ज्ञान नहीं होता। हिन्दी का प्रचार हो जानेसे फिर, “चिरदिन" के नाम समन्स भेजे जाने का अवसर कदापि न आवेगा। भाषा की बात राजनीति से सम्बन्ध नहीं रखती। भाषा के सम्बन्ध में किसी गूढ़ मन्त्रणा की शंका नहीं की जा सकती। भाषा एक होने से राजा और प्रजा दोनोंको समान लाभ है। जिस