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देशव्यापक भाषा


हम यह कहें कि हिन्दी में, नाम लेने योग्य, साहित्य ही नहीं तो भी बहुत बड़ी अत्युक्ति न होगी। इसके कई कारण हैं। एक कारण यह है कि इन प्रान्तों में लोगों की प्रवृत्ति पढ़ने लिखने की ओर कम है। जो अपने लड़के को स्कूल भेजता है वह ज्ञान-सम्पादन के लिए नहीं, किन्तु सरकारी नौकरी मिलने के लिए भेजता है। दूसरा कारण यह है कि सरकार आज तक हिन्दी की ओर से उदासीन थी। अब उसने हिन्दी को भी आश्रय दिया है। अतएव शीघ्र ही इसकी दशा सुधरने की आशा है। परन्तु उसकी वर्तमान अवस्था का विचार करने की आवश्यकता नहीं। आवश्यकता इस बात के बिचार की है कि हिन्दी देश-ब्यापक भाषा हो सकती है या नहीं; और ऐसा होने से देश को लाभ पहुंच सकता है या नहीं। इन बातों का विचार हम ऊपर कर आये हैं। हिन्दी सब प्रकार व्यापक भाषा होने के योग्य है। यदि इस देश में कोई व्यापक भाषा हो सकती है तो हिन्दी ही हो सकती है। इसलिए उसकी वर्तमान स्थिति की ओर दृक्पात न करके उसके गुणों ही का विचार करना अभीष्ट है। रत्न यदि कूड़े में फेंक दिया जाय तो उसका क्या अपराध ? अपराध फेंकनेवाले का है। वहां पड़ा रहने से उसका रत्नत्व नहीं जाता। किसीने कहा है-

कनक भूषणसंग्रहणोचितो यदि मणिस्त्रपुणि प्रणिधीयते ।

न स विरौति न चापि हि शोभते भवति योजयितुर्वचनीयता॥

अर्थात् सोने की अंगूठी में जड़े जाने योग्य हीरे को यदि किसीने कांसे में जड़ दिया तो उसका क्या दोष ? इस दशा