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देशव्यापक भाषा


उपस्थित होते ही वे किस साहस से, किस उत्तेजना से, किस स्वार्थत्याग से उठ खड़े होते हैं और तन, मन, धन, सभी अर्पण करके कार्यसिद्धि होने तक सारा दुराग्रह और सारा पक्षपात भूल जाते हैं। यदि भाषा के सम्बन्ध में भी हम लोगों ने यह गुण उनसे न सीखा तो हमने कुछ भी न किया । यदि यह भी हमसे न हो सका तो हमको समझना चाहिए कि कभी हमारा सिर ऊंचा न होगा। हमारा जो अधःपतन हुआ है उससे कभी हमारा निस्तार न होगा, हम कभी एकजातित्व के गुणों से परिपूर्ण हो कर सुखी न होंगे। आकल्पान्त हम इसी शोचनीय दशा में पड़े रहेंगे। कौन ऐसा अधम है जो इसी में सुख मानेगा !

जरा जापान की ओर दृष्टि कीजिए। अलग अलग छोटी छोटी रियासतों में बटे रहने के कारण, जब अपनी अशक्तता जापानियों की समझ में आ गई, तब उन्होंने एकमत होकर अपनी अपनी रियासतें और अपनी अपनी सेनाये गवर्नमेंट के सिपुर्द कर दी। इससे जापान शीघ्र ही प्रबल हो उठा और वह पृथ्वी के शक्तिमान देशों में गिना जाने लगा। इसीका नाम स्वार्थ-त्याग है। हिन्दी को व्यापक भाषा बनाने के लिए महाराष्ट्र, गुजराती, मदरासी और बङ्गालियों को क्या उतना स्वार्थ-त्याग करने की आवश्यकता है जितना कि जापानियों ने किया है ? नहीं । उसका दशांश भी नहीं । उनको अपनी भाषा के स्थान में हिन्दी भाषा को प्रधानता ही भर देना है। यह कोई बहुत बड़ा स्वार्थ-त्याग नहीं।