फिर, इसकी आवश्यकता भी नहीं कि और लोग अपनी
अपनी भाषाओं को बिलकुल ही भूल जायं। उनमें वे कोई पुस्तक ही न लिखें। उनमें वे अपने विचार ही न प्रकट करें। वे यह सब कर सकते हैं। देश-व्यापक भाषा के लिए केवल । इतना ही आवश्यक है कि इस विस्तीर्ण देश में जितनी भिन्न भिन्न भाषायें प्रचलित हैं उनके उत्तमोत्तम ग्रन्थों का प्रतिबिम्ब देश-ब्यापक भाषा में उतारा जाय। किसी भाषा का कोई भी ग्रन्थ हो उसकी प्रतिमा हिन्दी में आनी चाहिए। ऐसा किये बिना उन ग्रन्थों का सार्वत्रिक प्रचार न होगा। ऐसा किये बिना विशेष ज्ञानवृद्धि न होगी। प्रत्येक मनुष्य को अपनी अपनी भाषा के साहित्य के साथ साथ हिन्दी के साहित्य के उत्कर्ष के लिए हृदय से प्रयत्न करना चाहिए। हिन्दी पढ़ने का प्रचार सब कहीं होना चाहिए। हिन्दी में अच्छे अच्छे
समाचरपत्र सब प्रान्तों से निकलने चाहिए। ऐसा होने से हिन्दी की शीघ्र ही उन्नति होगी और वह सुगमता से देश-व्यापक भाषा हो सकेगी।
उपसंहार।
यहां तक जो कुछ लिखा गया उससे यह स्पष्ट है कि हिन्दुस्तान में यदि कोई भाषा देश-ब्यापक हो सकती है तो वह हिन्दी ही है। व्यापक भाषा होने के लिए वह सब प्रकार योग्य है। सरलता, शुद्धता और पूर्णता में हिन्दी लिपि की बराबरी दूसरी लिपि नहीं कर सकती। एक भाषा न होने से जो हानियां