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पृष्ठ:साहित्यालाप.djvu/९

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साहित्यालाप


बदध् है ! मनुष्य का मुंँह-कण्ठ, तालू, मूर्धा, दाँत, ओंठ और जीभ आदि-अवयवों में विभक्त है। जितने प्रकार की ध्वनियाँ मुंह से निकलती हैं, उन सब को, देवनागरी वर्णमाला के आविष्कर्ताओं ने अपने अपने अवयव के अनुसार, यथानियम, वर्णरूपी चिह्नों से बाँध सा दिया है । इसीसे चाहे जैसी ध्वनि मुंँह से निकले, नागरी में वह तद्वत् लिखी जा सकती है। इसीसे इस वर्णमाला का इतना आदर है। इसीसे यह वर्ण माला संसार की और वर्णमालाओं में श्रेष्ठ है । जो गुण इस में है वह और वर्णमालाओं में नहीं । अर्थात् कण्ठस्वर के अनुसार जैसी रचना इसके वर्णों की है वैसी न सेमिटिक की है,न ग्रीक की है, न अरबी की है। इसीसे इस देश के पण्डित पाश्चात्य पण्डितों की पूर्वाक्क उक्ति का प्रचारण-पूर्वक खण्डन करते हैं और कहते हैं कि हमारी वर्णमाला एकमात्र हमारी सम्पत्ति है । उस पर किसी दूसरे का अणुरेणु भर भी स्वत्य नहीं। यदि उस पर कोई किसी तरह का दावा करे तो वह झूठ । जनरल कनिंहम आदि कई योरोपियन पण्डितों की भी‌ ऐसी ही राय है।

देवनागरी वर्णमाला भारतवर्ष की सबसे पुरानी वर्णमाला है। आर्यभाषा-सम्बन्धिनी जितनी अन्य वर्णमालायें इस समय‌ प्रचलित हैं, सब उसीसे निकली हैं। जिस समय उसकी उत्पत्ति हुई उस समय उसका वह रूप न था जिस रूप में हम‌ उसे इस समय देखते हैं । इस संसार में कोई चीज़ स्थिर नहीं; सबमें परिवर्तन हुआ करता है । संसार खुद ही परिवर्तनशील