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पृष्ठ:साहित्य का इतिहास-दर्शन.djvu/४९

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साहित्य का इतिहास-दर्शन इसकी कभी उन्नति नहीं होती, यह पीछे नहीं छोड़ी जा सकती और न इसकी पुनरावृत्ति ही संभव है । डब्लू० पी० कर के मतानुसार साहित्यिक इतिहास की कोई आवश्यकता हो नहीं है, क्योंकि इसके विषय सदैव विद्यमान हैं, 'सार्वकालिक है, जिसके कारण उनका कोई इतिहास हो ही नहीं सकता। टी० एम० एलियट तो कला-कृति की 'अतीनता' ही अस्वीकृत कर देते हैं । उनका कहना है कि "होमर से लेकर समस्त योरोपीय साहित्य का योगपदिक अस्तित्व है और वह एक यौगपदिक क्रम का निर्माण करता है । इस दृष्टिकोण के विद्वानों के मत का निष्कर्ष है कि साहित्यिक इतिहास सही अर्थ में इतिहास है ही नहीं, क्योंकि यह वर्त्तमान का, सार्वभीम का, शाश्वत का ज्ञान है । यह ठीक है भी कि राजनीतिक इतिहास और कला के इतिहास में थोड़ा वास्तविक अंतर है। जो ऐतिहासिक है और अतीत है तथा जो ऐतिहासिक होने के बावजूद किसी-न-किसी तरह वर्त्तमान है, उनमें भेद तो है ही । वस्तु स्थिति यह है कि कोई भी कला-कृति इतिहास के अनुक्रम में अपरिवर्तित नहीं रहती । यह ठीक है कि उसके रचन का बहुलांश विभिन्न युगों में अक्षुण्ण रह जाता है, किंतु यह रचन गत्यात्मक होता है, पाठकों, आलोचकों और अन्य कलाकारों की प्रज्ञा से पारित होता हुआ, इतिहास की प्रक्रिया के बीच, परिवर्तित होता रहता है। व्याख्या, आलोचना और परिशंसन की प्रक्रिया कभी पूर्णतः रुद्ध नहीं हुई है और भविष्य में भी अनंत काल तक चलती रहेगी तब तक तो अवश्य ही जब तक सांस्कृतिक परंपरा का ही पूर्णतः अवरोध नहीं हो जाता । हम मानते हैं कि साहित्यिक इतिहासकार के कर्तव्यों में से एक यह है कि वह इस प्रक्रिया का वर्णन प्रस्तुत करे । एक ही लेखक की कृति होने अथवा एक ही प्रकार या समान शैलीगत कोटि, या एक ही भाषागत परंपरा के होने के कारण बड़े या छोटे वर्गों में, और अन्त:: सार्वभौम साहित्य की योजना के अभ्यंतर, व्यूहित कला-कृतियों के परिणमन का निर्धारण करना साहित्यिक इतिहासकार का दूसरा कर्त्तव्य है । किंतु कला-कृतियों की किसी श्रेणी के विकास का अध्ययन परम दुष्कर कार्य है। ऊपर से देखने पर, अर्थ-विशेष में प्रत्येक कला-कृति प्रतिवेशी कलाकृति में असंबद्ध रचन है। यह कहा जा सकता है कि एक से दूसरे में परिणमन होता ही नहीं। तभी तो यहाँ तक कहा गया है कि साहित्य का इतिहास नहीं होना, केवल साहित्य के रचयिताओं का होता है। लेकिन तब तो, इसी तर्क के अनुसार, हम भाषा का इतिहास नहीं लिख सकते, क्योंकि मनुष्य शब्द बोलते भर हैं, और दर्शन का इतिहास इसलिए नहीं लिख सकते, क्योंकि मनुष्य सोचते भर हैं । इस प्रकार की ऐकांतिक व्यक्तिवादिता का परिणाम यह होगा कि प्रत्येक कला-कृति को सर्वथा निरपेक्ष मानना पड़ेगा, जिसका व्यावहारिक अर्थ इसके सिवा क्या हो सकता है कि प्रत्येक कला-कृति असंवेद्य और अनवबोध्य हो जायगी। अतः हमें साहित्य की कृतियों को ऐसी संपूर्ण प्रणाली के रूप में विभावित करना होगा, जो नवीन कृतियों के संचयन के कारण अपने संबंधों को निरंतर परिवर्त्तित करती रहती है, और परिवर्त्तमान संपूर्णता के रूप में विकसित होती चलती है । किंतु एक वास्तविक ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया स्थापित करने के लिए यह तथ्य ही पर्याप्त नहीं कि एक दशाब्दी या शताब्दी पहले की तुलना में काल-विशेष की साहित्यिक