पृष्ठ:साहित्य का इतिहास-दर्शन.djvu/५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अध्याय ५ परिस्थिति परिवर्त्तित हो गई है । ऐसा इसलिए क्योंकि परिवर्तन की विभावना किसी भी प्राकृतिक गोचरवस्तु की श्रेणी पर लागू है। इसका अर्थ-मात्र निरंतर नवीन किंतु निरर्थक एवं अनधिगम्य पुनर्व्यूहन भी हो सकता है । एफ्० जी० टेगार्ट ने अपनी पुस्तक इतिहास का सिद्धांत' में परिवर्तन के अध्ययन का समर्थन किया है किंतु उसका अर्थ होगा कि एंति- हासिक और प्राकृतिक प्रक्रियाओं के सारे अंतर विस्मृत कर दिये जायें, और इतिहासकार को प्राकृतिक विज्ञान का अधमर्ण मान लिया जाय। अगर ये परिवर्त्तन पूर्णतः नियत रूप से घटित होते, तब हम पदार्थशास्त्री के समान नियम की विभावना कर पाते, किंतु स्पॅग्लर और टोय्नबी जैसे महामतिमान् इतिहासकारों की चमत्कारक्षम उद्भावनाओं के बावजूद सत्य यह है कि किसी ऐतिहासिक प्रक्रिया में एवंविध अग्रनिरूप्य परिवर्तन आज तक आविष्कृत हुए नहीं हैं । परिणमन का अर्थ परिवर्त्तन या नियत तथा अग्रनिरूप्य परिवर्तन से भी कुछ भिन्न और कुछ अधिक होता है । जैविकी में विकास की एक दूसरे से सर्वथा भिन्न विभावनाएँ हैं: पहली हैं वह प्रक्रिया, जो अंडे के चिड़िए के रूप में वर्धन के द्वारा उदाहृत होती है, और दूसरी है वह विकास, जिसका दृष्टांत है मछली के मस्तिष्क का मनुष्य के मस्तिष्क के रूप में बदलना । यहाँ दूसरे दृष्टांत में, यह स्पष्ट ही है कि वस्तुतः मस्तिष्क की किसी श्रेणी का कभी परणमन नहीं होता, बल्कि 'मस्तिष्क' इस विभावनिक प्रणिधान का ही होता है, जिसकी परि भाषा उसके व्यापार की दृष्टि से की जा सकती है । प्रश्न यह है कि क्या इन दोनों में से किसी अर्थ में साहित्यिक विकास की बात कही जा सकती है । फर्डिनेंड ब्रुनेतिएर " और जान ऐडिङ्टन सिमंड्स” के मतानुसार दोनों अर्थों में साहित्यिक विकास की बात कही जा सकती है । दोनों की मान्यता थी कि प्रकृति में पाई जाने वाली प्राणि-जातियों के साम्य पर साहित्यिक रूपों की भी बात की जा सकती है । ब्रुनेतिएर का कहना था कि साहित्य के रूप जब एक बार परिपूर्णता की एक विशेष सीमा तक पहुँच जाते हैं, तो वे सूखने और कुम्हलाने लगते हैं और अंत में लुप्त हो जाते हैं । इसके अतिरिक्त साहित्यिक रूप उच्चतर तथा और अधिक पृथग्भूत रूपों में उसी प्रकार परि वर्त्तित हो जाते हैं जिस प्रकार डार्विनीय विकास के विभावन में प्राणि-जातियाँ । पहले अर्थ में 'विकास' शब्द का व्यवहार एक कौतूहलवर्धक रूपक से अधिक कुछ नहीं है। अनंनिएर के अनुसार, उसके सिद्धांत का दृष्टांत फांसीसी त्रासदी (ट्रेजेडी) में मिलता है वह जनमी, बढी, बिगड़ी और मर गई। लेकिन फांसीसी त्रासदी के जनमने-मरने की कल्पना का आधार वस्तुतः इतना भर है कि फ्रांसीसी भाषा में योदेले (Jodelle) के पूर्व त्रासदियाँ नहीं पाई जातीं और वाल्तेयर के बाद, ब्रुनेतिएर के आदर्श के अनुरूप, वे लिखी न गई । किंतु इसकी तो संभावना है ही कि भविष्य में फांसीमी भाषा में कोई महान् त्रासदी लिखी जा सकती है। ब्रुनेतिएर के अनुसार, रेसीन (Racine) की त्रासदी, फंद्रे, उस फांसीसी त्रासदी के हाम की पहली कड़ी है, जो वार्धक्य को प्राप्त हो चुकी थी; किंतु आज के युग में तो पुनर्जागरण- युग की उन पंडिताऊ त्रासदियों की तुलना में, ये नई और ताजा ही मालूम पड़ती है, जिन्हें ब्रुनेतिएर ने फांसीसी त्रासदी के 'यौवन' का प्रतिनिधि माना है। और यह उद्भावना कि साहित्यिक रूप दूसरे माहित्यिक रूपों में बदल जाते हैं और भी अयौक्तिक है। उदाहरण के लिए, ब्रुनेतिएर का यह कहना कि श्रेण्य युगों की धार्मिक वक्तृता का ही रूमानी गीति-काव्य